रात Poetry (page 98)
ये तन्हा रात ये गहरी फ़ज़ाएँ
अहमद मुश्ताक़
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
अहमद मुश्ताक़
वो जो रात मुझ को बड़े अदब से सलाम कर के चला गया
अहमद मुश्ताक़
मिलने की ये कौन घड़ी थी
अहमद मुश्ताक़
मैं ने कहा कि देख ये मैं ये हवा ये रात
अहमद मुश्ताक़
इक रात चाँदनी मिरे बिस्तर पे आई थी
अहमद मुश्ताक़
ये तन्हा रात ये गहरी फ़ज़ाएँ
अहमद मुश्ताक़
ये हम ग़ज़ल में जो हर्फ़-ओ-बयाँ बनाते हैं
अहमद मुश्ताक़
थम गया दर्द उजाला हुआ तन्हाई में
अहमद मुश्ताक़
शाम-ए-ग़म याद है कब शम्अ' जली याद नहीं
अहमद मुश्ताक़
शबनम को रेत फूल को काँटा बना दिया
अहमद मुश्ताक़
मुसलसल याद आती है चमक चश्म-ए-ग़ज़ालाँ की
अहमद मुश्ताक़
लुभाता है अगरचे हुस्न-ए-दरिया डर रहा हूँ मैं
अहमद मुश्ताक़
कहूँ किस से रात का माजरा नए मंज़रों पे निगाह थी
अहमद मुश्ताक़
हर लम्हा ज़ुल्मतों की ख़ुदाई का वक़्त है
अहमद मुश्ताक़
हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं
अहमद मुश्ताक़
इक उम्र की और ज़रूरत है वही शाम-ओ-सहर करने के लिए
अहमद मुश्ताक़
इक फूल मेरे पास था इक शम्अ' मेरे साथ थी
अहमद मुश्ताक़
चाँद इस घर के दरीचों के बराबर आया
अहमद मुश्ताक़
तारीकी के रात अज़ाब ही क्या कम थे
अहमद महफ़ूज़
कहाँ किसी को थी फ़ुर्सत फ़ुज़ूल बातों की
अहमद महफ़ूज़
वो इक सवाल-ए-सितारा कि आसमान में था
अहमद महफ़ूज़
रक़्स-ए-शरर क्या अब के वहशत-नाक हुआ
अहमद महफ़ूज़
किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
अहमद महफ़ूज़
किसी का अक्स-ए-बदन था न वो शरारा था
अहमद महफ़ूज़
अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
अहमद महफ़ूज़
शहर-ए-सदमात से आगे नहीं जाने वाला
अहमद ख़याल
कल रात इक अजीब पहेली हुई हवा
अहमद ख़याल
दरिया में दश्त दश्त में दरिया सराब है
अहमद ख़याल
तुम्हारे हिज्र को काफ़ी नहीं समझता मैं
अहमद कामरान
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