रात Poetry (page 46)
है शौक़ तो बे-साख़्ता आँखों में समो लो
रशीद क़ैसरानी
गाता रहा है दूर कोई हीर रात भर
रशीद क़ैसरानी
बात सूरज की कोई आज बनी है कि नहीं
रशीद क़ैसरानी
सवाद-ए-शाम पे सूरज उतरने वाला है
रशीद निसार
दरिया को अपने पाँव की कश्ती से पार कर
रशीद निसार
राज़ उल्फ़त के अयाँ रात को सारे होते
रशीद लखनवी
ख़ार-ओ-ख़स फेंके चमन के रास्ते जारी करे
रशीद लखनवी
है अंधेरा तो समझता हूँ शब-ए-गेसू है
रशीद लखनवी
बाग़ में जुगनू चमकते हैं जो प्यारे रात को
रशीद लखनवी
तन्हाइयों के दर्द से रिसता हुआ लहू
रशीद अफ़रोज़
शो'ला शमीम-ए-ज़ुल्फ़ से आगे बढ़ा नहीं
रशीद अफ़रोज़
सामने जी सँभाल कर रखना
रसा चुग़ताई
'मीर'-जी से अगर इरादत है
रसा चुग़ताई
मैं ने सोचा था इस अजनबी शहर में ज़िंदगी चलते-फिरते गुज़र जाएगी
रसा चुग़ताई
जब तक दौर-ए-जाम चलेगा
रसा चुग़ताई
यक़ीनन है कोई माह-ए-मुनव्वर पीछे चिलमन के
रंजूर अज़ीमाबादी
जनाज़ा धूम से उस आशिक़-ए-जाँ-बाज़ का निकले
रंजूर अज़ीमाबादी
ता हश्र रहे ये दाग़ दिल का
रंगीन सआदत यार ख़ाँ
हमदमो क्या मुझ को तुम उन से मिला सकते नहीं
रंगीन सआदत यार ख़ाँ
रखो तुम बंद बे-शक अपनी घड़ियाँ
राणा गन्नौरी
निगाह तूर पे है और जमाल सीने में
रम्ज़ अज़ीमाबादी
ज़रा ज़रा सी बात पर वो मुझ से बद-गुमाँ रहे
रमेश कँवल
ज़िंदगी कशमकश-ए-वक़्त में गुज़री अपनी
राम रियाज़
अब कहाँ वो पहली सी फ़ुर्सतें मयस्सर हैं
राम रियाज़
रूह में घोर अंधेरे को उतरने न दिया
राम रियाज़
मुस्कुराती आँखों को दोस्तों की नम करना
राम रियाज़
मुझे कैफ़-ए-हिज्र अज़ीज़ है तू ज़र-ए-विसाल समेट ले
राम रियाज़
लफ़्ज़ बे-जाँ हैं मिरे रूह-ए-मआनी मुझे दे
राम रियाज़
कहीं जंगल कहीं दरबार से जा मिलता है
राम रियाज़
अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ
राम रियाज़
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