पत्थर Poetry (page 19)
जिस को आदत वस्ल की हो हिज्र से क्यूँकर बने
रशीद लखनवी
मौसम-ए-गुल भी मिरे घर आया
रशीद कामिल
गए दिनों की मुसाफ़िरत का ब-यक-क़लम इश्तिहार लिखना
रशीद एजाज़
आँखों में ज़िंदगी के तमाशे उछाल कर
रशीद एजाज़
इस घर की सारी दीवारें शीशे की हैं
रसा चुग़ताई
अपनी बे-चेहरगी में पत्थर था
रसा चुग़ताई
ख़ुद तराशना पत्थर और ख़ुदा बना लेना
राणा गन्नौरी
इक तस्वीर पिया की उभरी मंज़र से
राना आमिर लियाक़त
इस सदी का जब कभी ख़त्म-ए-सफ़र देखेंगे लोग
रम्ज़ अज़ीमाबादी
जब उन के पा-ए-नाज़ की ठोकर में आएगा
रम्ज़ आफ़ाक़ी
किसी मरक़द का ही ज़ेवर हो जाएँ
राम रियाज़
किस ने कहा था शहर में आ कर आँख लड़ाओ दीवारों से
राम प्रकाश राही
नवाज़ा है मुझे पत्थर से जिस ने
राम अवतार गुप्ता मुज़्तर
सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ
राम अवतार गुप्ता मुज़्तर
जो निहायत मेहरबाँ है और निहाँ रक्खा गया
रख़्शंदा नवेद
जो निहायत मेहरबाँ है और निहाँ रखा गया
रख़्शंदा नवेद
आख़िरी मौसम
राजेन्द्र मनचंदा बानी
वो बात बात पे जी भर के बोलने वाला
राजेन्द्र मनचंदा बानी
कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ाएब हर मंज़र मेरा
राजेन्द्र मनचंदा बानी
दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
राजेन्द्र मनचंदा बानी
अक्स कोई किसी मंज़र में न था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
न जिस्म साथ हमारे न जाँ हमारी तरफ़
राजेश रेड्डी
दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊँ
राजेश रेड्डी
जैसे फ़साना ख़त्म हुआ
राज नारायण राज़
कोई पत्थर ही किसी सम्त से आया होता
राज नारायण राज़
किसी का जिस्म हुआ जान-ओ-दिल किसी के हुए
रईस सिद्दीक़ी
काली रेत
रईस फ़रोग़
रातों को दिन के सपने देखूँ दिन को बिताऊँ सोने में
रईस फ़रोग़
जंगल से आगे निकल गया
रईस फ़रोग़
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