नज़र Poetry (page 23)
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
ग़ालिब
देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
ग़ालिब
चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है
ग़ालिब
अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
ग़ालिब
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
ग़ालिब
आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
ग़ालिब
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ग़ालिब
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
ग़ालिब
रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही
गणेश बिहारी तर्ज़
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
गणेश बिहारी तर्ज़
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
गणेश बिहारी तर्ज़
कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
फ़ुज़ैल जाफ़री
कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
फ़ुज़ैल जाफ़री
उधार
फ़ुर्क़त काकोरवी
निगाह-ए-हुस्न की तासीर बन गया शायद
फ़ितरत अंसारी
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
फ़िराक़ गोरखपुरी
तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और
फ़िराक़ गोरखपुरी
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
फ़िराक़ गोरखपुरी
शाम-ए-अयादत
फ़िराक़ गोरखपुरी
परछाइयाँ
फ़िराक़ गोरखपुरी
जुगनू
फ़िराक़ गोरखपुरी
आधी रात
फ़िराक़ गोरखपुरी
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
फ़िराक़ गोरखपुरी
सुना तो है कि कभी बे-नियाज़-ए-ग़म थी हयात
फ़िराक़ गोरखपुरी
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
फ़िराक़ गोरखपुरी
रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो
फ़िराक़ गोरखपुरी
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
फ़िराक़ गोरखपुरी
नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है
फ़िराक़ गोरखपुरी
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