नज़र Poetry (page 77)
न होते शाद आईन-ए-गुलिस्ताँ देखने वाले
ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी
अब तो ख़ुद से भी कुछ ऐसा है बशर का रिश्ता
ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी
आप अपने को मो'तबर कर लें
ग़नी एजाज़
किया बदनाम इक आलम ने 'ग़मगीं' पाक-बाज़ी में
ग़मगीन देहलवी
न पूछ हिज्र में जो हाल अब हमारा है
ग़मगीन देहलवी
मिरा उस के पस-ए-दीवार घर होता तो क्या होता
ग़मगीन देहलवी
जो न वहम-ओ-गुमान में आवे
ग़मगीन देहलवी
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
ग़ालिब
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
ग़ालिब
कोई उम्मीद बर नहीं आती
ग़ालिब
हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
ग़ालिब
है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
ग़ालिब
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
ग़ालिब
सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मिरी क़ीमत ये है
ग़ालिब
सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
ग़ालिब
शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है
ग़ालिब
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
ग़ालिब
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
ग़ालिब
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द
ग़ालिब
नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए
ग़ालिब
मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
ग़ालिब
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
ग़ालिब
मस्ती ब-ज़ौक़-ए-ग़फ़लत-ए-साक़ी हलाक है
ग़ालिब
माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
ग़ालिब
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
ग़ालिब
कोई उम्मीद बर नहीं आती
ग़ालिब
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
ग़ालिब
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में
ग़ालिब
जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार
ग़ालिब
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
ग़ालिब
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