सपना Poetry (page 34)
सुर्ख़ चमन ज़ंजीर किए हैं सब्ज़ समुंदर लाया हूँ
साक़ी फ़ारुक़ी
सब कुछ न कहीं सोग मनाने में चला जाए
साक़ी फ़ारुक़ी
रात अपने ख़्वाब की क़ीमत का अंदाज़ा हुआ
साक़ी फ़ारुक़ी
पाँव मारा था पहाड़ों पे तो पानी निकला
साक़ी फ़ारुक़ी
लोग थे जिन की आँखों में अंदेशा कोई न था
साक़ी फ़ारुक़ी
ख़ाक नींद आए अगर दीदा-ए-बेदार मिले
साक़ी फ़ारुक़ी
जान प्यारी थी मगर जान से बे-ज़ारी थी
साक़ी फ़ारुक़ी
हिरास फैल गया है ज़मीन-दानों में
साक़ी फ़ारुक़ी
हमला-आवर कोई अक़ब से है
साक़ी फ़ारुक़ी
एक दिन ज़ेहन में आसेब फिरेगा ऐसा
साक़ी फ़ारुक़ी
दर्द पुराना आँसू माँगे आँसू कहाँ से लाऊँ
साक़ी फ़ारुक़ी
दर्द के इताब ले दोस्त उसे शुमार कर
साक़ी फ़ारुक़ी
छुप के मिलने आ जाए रौशनी की जुरअत क्या
साक़ी फ़ारुक़ी
बाहर के असरार लहू के अंदर खुलते हैं
साक़ी फ़ारुक़ी
तुम्हारी याद को हम ने पलक पर यूँ सजा रक्खा
संजीव आर्या
कैसे इस बात पर यक़ीं कर लूँ
संदीप कोल नादिम
चश्म-ए-तर है कोई सराब नहीं
संदीप कोल नादिम
ये रस्ता
समीना राजा
समुंदर की ख़ुश्बू
समीना राजा
दुनिया का ज़र्रा ज़र्रा मियाँ इश्क़ इश्क़ है
सलमान ज़फ़र
इज़्तिराब
सलमान अंसारी
मय-कशी छोड़ दी तौहीन-ए-हुनर कर आया
सलमान अंसारी
दिल को उजड़े हुए बीते हैं ज़माने कितने
सलमान अंसारी
वो एक ख़्वाब जो फिर लौट कर नहीं आया
सलमान अख़्तर
वो पास रह के भी मुझ में समा नहीं सकता
सलमान अख़्तर
जागते में भी ख़्वाब देखे हैं
सलमान अख़्तर
उसे भुला न सकी नक़्श इतने गहरे थे
सलमा शाहीन
थी ये उम्मीद कि वो लौट के घर आएगा
सलमा शाहीन
आज शायद ज़िंदगी का फ़ल्सफ़ा समझा हूँ मैं
सलीम शुजाअ अंसारी
मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए
सालिम सलीम
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