हुआ Poetry (page 123)
मैं अपने आप से ग़ाफ़िल न यूँ हुआ होता
हसन रिज़वी
खिलने लगे हैं फूल और पत्ते हरे हुए
हसन रिज़वी
कभी आबाद करता है कभी बरबाद करता है
हसन रिज़वी
इस दर्जा मेरी ज़ात से उस को हसद हुआ
हसन रिज़वी
हवा के रुख़ पर चराग़-ए-उल्फ़त की लौ बढ़ा कर चला गया है
हसन रिज़वी
ज़ुल्मत ही पहले थी जो हवाले में रह गई
हसन निज़ामी
तय मुझ से ज़िंदगी का कहाँ फ़ासला हुआ
हसन निज़ामी
शाख़ से फूल को फिर जुदा कर दिया
हसन निज़ामी
ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ
हसन नईम
बे-इल्तिफ़ाती
हसन नईम
यही तो ग़म है वो शाइ'र न वो सियाना था
हसन नईम
क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से
हसन नईम
पैकर-ए-नाज़ पे जब मौज-ए-हया चलती थी
हसन नईम
न मेरे ख़्वाब को पैकर न ख़द्द-ओ-ख़ाल दिया
हसन नईम
मुझ को कोई भी सिला मिलने में दुश्वारी न थी
हसन नईम
मैं जनम जनम का अनीस हूँ किसी तौर दिल में बसा मुझे
हसन नईम
करें न याद वो शब हादिसा हुआ सो हुआ
हसन नईम
करें न याद शब-ए-हादिसा हुआ सो हुआ
हसन नईम
जो ग़म के शो'लों से बुझ गए थे हम उन के दाग़ों का हार लाए
हसन नईम
ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ
हसन नईम
दिल में उतरोगे तो इक जू-ए-वफ़ा पाओगे
हसन नईम
बिछ्ड़ें तो शहर भर में किसी को पता न हो
हसन नईम
बसर हो यूँ कि हर इक दर्द हादिसा न लगे
हसन नईम
आँखों में बस रहा है अदा के बग़ैर भी
हसन नईम
आइने से न डरो अपना सरापा देखो
हसन नज्मी सिकन्दरपुरी
मालूम हुआ कैसे ख़िज़ाँ आती है गुल पर
हसन जमील
कितनी बे-रंग थी दुनिया मिरे ख़्वाबों की 'जमील'
हसन जमील
नज़र में मंज़र-ए-रफ़्ता समा भी सकता है
हसन जमील
दश्त में फूल खिला रक्खा है
हसन जमील
मिल गया दिल निकल गया मतलब
हसन बरेलवी
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