गुल Poetry (page 57)

लताफ़त बे-कसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती

ग़ालिब

क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो

ग़ालिब

ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे

ग़ालिब

कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है

ग़ालिब

करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़

ग़ालिब

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया

ग़ालिब

जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की

ग़ालिब

जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है

ग़ालिब

जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे

ग़ालिब

जराहत तोहफ़ा अल्मास अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया

ग़ालिब

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई

ग़ालिब

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

ग़ालिब

हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है

ग़ालिब

हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी

ग़ालिब

हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो

ग़ालिब

हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से

ग़ालिब

है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा

ग़ालिब

है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल

ग़ालिब

है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे

ग़ालिब

गुलशन को तिरी सोहबत अज़-बस-कि ख़ुश आई है

ग़ालिब

ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की

ग़ालिब

ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ

ग़ालिब

गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे

ग़ालिब

गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा

ग़ालिब

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर

ग़ालिब

एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब

ग़ालिब

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है

ग़ालिब

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई

ग़ालिब

दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया

ग़ालिब

दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना

ग़ालिब

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