गुल Poetry (page 55)

दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की

ग़ुलाम मौला क़लक़

दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ

ग़ुलाम मौला क़लक़

समझते हैं जो अपने बाप की जागीर मिट्टी को

ग़ुलाम हुसैन साजिद

क़र्या-ए-हैरत में दिल का मुस्तक़र इक ख़्वाब है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मसाफ़त-ए-उम्र में ज़ियाँ का हिसाब होता है जुस्तुजू से

ग़ुलाम हुसैन साजिद

इक शम्अ' की सूरत में मंज़ूर किया जाऊँ

ग़ुलाम हुसैन साजिद

एक घर अपने लिए तय्यार करना है मुझे

ग़ुलाम हुसैन साजिद

दस्त-ए-राहत ने कभी रँज-ए-गिराँ-बारी ने

ग़ुलाम हुसैन साजिद

चराग़ की ओट में है मेहराब पर सितारा

ग़ुलाम हुसैन साजिद

आइने में अक्स खिलता है गुल-ए-हैरत नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

ज़ीस्त का ख़ाली कटोरा आप ही भर जाएगा

ग़ुलाम हुसैन अयाज़

ज़बाँ साकित हो क़त-ए-गुफ़्तुगू हो

ग़ुबार भट्टी

मुझे किस तरह से न हो यक़ीं कि उसे ख़िज़ाँ से गुरेज़ है

ग़ुबार भट्टी

मिरे मुद्दआ-ए-उल्फ़त का पयाम बन के आई

ग़ुबार भट्टी

बैठे हैं ईद को सब यार बग़ल में ले कर

ग़ज़नफ़र अली ग़ज़नफ़र

बिजली की ज़द में एक मिरा आशियाँ नहीं

ग़नी एजाज़

अंदाज़-ए-फ़िक्र अहल-ए-जहाँ का जुदा रहा

ग़नी एजाज़

मुझ से आज़ुर्दा जो उस गुल-रू को अब पाते हैं लोग

ग़मगीन देहलवी

सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं

ग़ालिब

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

ग़ालिब

फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार

ग़ालिब

नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल

ग़ालिब

मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है

ग़ालिब

हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा

ग़ालिब

बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल

ग़ालिब

बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल

ग़ालिब

ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है

ग़ालिब

ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है

ग़ालिब

ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक

ग़ालिब

यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का

ग़ालिब

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