घर Poetry (page 96)
हब्स के दिनों में भी घर से कब निकलते हैं
बशीर सैफ़ी
न आने के उन के बहाने भी देखे
बशीर महताब
जब से मिरे रक़ीब का रस्ता बदल गया
बशीर महताब
पहले हम ने घर बना कर फ़ासले पैदा किए
बशीर फ़ारूक़ी
शहर-ए-फ़स्ल-ए-गुल से चल कर पत्थरों के दरमियाँ
बशीर फ़ारूक़ी
मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा
बशीर फ़ारूक़ी
लोगो हम छान चुके जा के समुंदर सारे
बशीर फ़ारूक़ी
ये परिंदे भी खेतों के मज़दूर हैं
बशीर बद्र
तुम्हारे घर के सभी रास्तों को काट गई
बशीर बद्र
रोने वालों ने उठा रक्खा था घर सर पर मगर
बशीर बद्र
मोहब्बत अदावत वफ़ा बे-रुख़ी
बशीर बद्र
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
बशीर बद्र
कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
बशीर बद्र
बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
बशीर बद्र
ज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँ
बशीर बद्र
यूँही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
बशीर बद्र
वो चाँदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बशीर बद्र
वो अपने घर चला गया अफ़्सोस मत करो
बशीर बद्र
वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
बशीर बद्र
उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओ
बशीर बद्र
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
बशीर बद्र
सर-ए-राह कुछ भी कहा नहीं कभी उस के घर मैं गया नहीं
बशीर बद्र
सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है
बशीर बद्र
पिछली रात की नर्म चाँदनी शबनम की ख़ुनकी से रचा है
बशीर बद्र
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
बशीर बद्र
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
बशीर बद्र
मेरे सीने पर वो सर रक्खे हुए सोता रहा
बशीर बद्र
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
बशीर बद्र
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
बशीर बद्र
ख़ुशबू की तरह आया वो तेज़ हवाओं में
बशीर बद्र
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