घर Poetry (page 84)
बग़ैर नक़्शे के सारे मकान लगते हैं
फ़े सीन एजाज़
अच्छी-ख़ासी रुस्वाई का सबब होती है
फ़े सीन एजाज़
आँख और नींद के रिश्ते मुझे वापस कर दे
फ़े सीन एजाज़
तुम्हारे लिए मुस्कुराती सहर है
फ़व्वाद अहमद
हवा ने छीन लिया आ के मेरे होंटों से
फ़व्वाद अहमद
क्यूँ मसाफ़त में न आए याद अपना घर मुझे
फ़ौक़ लुधियानवी
यूँ लगा देख के जैसे कोई अपना आया
फ़ातिमा वसीया जायसी
एक नज़्म माँ के लिए
फ़ातिमा हसन
ज़मीं से रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर भी रखना है
फ़ातिमा हसन
नहीं समझी थी जो समझा रही हूँ
फ़ातिमा हसन
मिरी ज़मीं पे लगी आप के नगर में लगी
फ़ातिमा हसन
ख़्वाब गिरवी रख दिए आँखों का सौदा कर दिया
फ़ातिमा हसन
कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का
फ़ातिमा हसन
न अपनी बात न मेरा क़ुसूर लिक्खा था
फ़सीहुल्ला नक़ीब
ग़ुबार-ए-तंग-ज़ेहनी सूरत-ए-ख़ंजर निकलता है
फ़सीह अकमल
सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
फ़रियाद आज़र
ऐसी ख़ुशियाँ तो किताबों में मिलेंगी शायद
फ़रियाद आज़र
सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
फ़रियाद आज़र
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
फ़रियाद आज़र
सर पे हर्फ़ आता है दस्तार पे हर्फ़ आता है
फ़रताश सय्यद
तन्हा छोड़ के जाने वाले इक दिन पछताओगे
फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें
फ़र्रुख़ जाफ़री
यूँ मुसल्लत तो धुआँ जिस्म के अंदर तक है
फ़र्रुख़ जाफ़री
था अबस ख़ौफ़ कि आसेब-ए-गुमाँ मैं ही था
फ़र्रुख़ जाफ़री
राह-ए-गुम-कर्दा सर-ए-मंज़िल भटक कर आ गया
फ़र्रुख़ जाफ़री
मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें
फ़र्रुख़ जाफ़री
कोई मौसम हो कुछ भी हो सफ़र करना ही पड़ता है
फ़र्रुख़ जाफ़री
जाने क्या ऐसा उसे मुझ में नज़र आया था
फ़र्रुख़ जाफ़री
इस राज़ के बातिन तक पहुँचा ही नहीं कोई
फ़र्रुख़ जाफ़री
गो इस सफ़र में थक के बदन चूर हो गया
फ़र्रुख़ जाफ़री
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