घर Poetry (page 68)
मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो'तबर कर दे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ख़्वाब देखने वाली आँखें पत्थर होंगी तब सोचेंगे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ख़ल्क़ ने इक मंज़र नहीं देखा बहुत दिनों से
इफ़्तिख़ार आरिफ़
कहीं से कोई हर्फ़-ए-मो'तबर शायद न आए
इफ़्तिख़ार आरिफ़
इन्हीं में जीते इन्हीं बस्तियों में मर रहते
इफ़्तिख़ार आरिफ़
हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए
इफ़्तिख़ार आरिफ़
अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
इफ़्फ़त ज़र्रीं
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
इफ़्फ़त ज़र्रीं
अजीब कर्ब-ए-मुसलसल दिल-ओ-नज़र में रहा
इफ़्फ़त ज़र्रीं
अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता
इफ़्फ़त ज़र्रीं
इक ख़ौफ़-ज़दा सा शख़्स घर तक
इदरीस बाबर
सो दुनिया में जीना बसना दिल को मरने मत देना
इदरीस बाबर
रब्त असीरों को अभी उस गुल-ए-तर से कम है
इदरीस बाबर
एक दिन ख़्वाब-नगर जाना है
इदरीस बाबर
दिल में है इत्तिफ़ाक़ से दश्त भी घर के साथ साथ
इदरीस बाबर
देखा नहीं चाँद ने पलट कर
इदरीस बाबर
सुकूँ-परवर है जज़्बाती नहीं है
इबरत बहराईची
मिरे ही दिल को अपना घर समझना
इबरत बहराईची
चाहे सहरा में चाहे घर रहना
इबरत बहराईची
नहीं है तुम में सलीक़ा जो घर बनाने का
इब्राहीम अश्क
दुनिया बहुत क़रीब से उठ कर चली गई
इब्राहीम अश्क
मुझे न देखो मिरे जिस्म का धुआँ देखो
इब्राहीम अश्क
लबों पर प्यास हो तो आस के बादल भरे रखियो
इब्राहीम अश्क
दुनिया लुटी तो दूर से तकता ही रह गया
इब्राहीम अश्क
अजब है खेल कैरम का
इब्न-ए-मुफ़्ती
शौक़ जब भी बंदगी का रहनुमा होता नहीं
इब्न-ए-मुफ़्ती
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