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Collection: घर Hindi Poetry | Best Hindi Shayari & Poems - Page 100 - Darsaal

घर Poetry (page 100)

मैं ने कल ख़्वाब में आइंदा को चलते देखा

अज़्म बहज़ाद

मैं उम्र के रस्ते में चुप-चाप बिखर जाता

अज़्म बहज़ाद

कहीं गोयाई के हाथों समाअत रो रही है

अज़्म बहज़ाद

बे-हद ग़म हैं जिन में अव्वल उम्र गुज़र जाने का ग़म

अज़्म बहज़ाद

किसी के नाम पे नन्हे दिए जलाते हुए

अज़लान शाह

मैं!

अज़ीज़ क़ैसी

कंफ़ेशन

अज़ीज़ क़ैसी

उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी

अज़ीज़ क़ैसी

उलझाओ का मज़ा भी तिरी बात ही में था

अज़ीज़ क़ैसी

रात की रात पड़ाव का मेला कोच की धूल सवेरे

अज़ीज़ क़ैसी

मैं अपने गिर्द लकीरें बिछाए बैठा हूँ

अज़ीज़ नबील

धूप के जाते ही मर जाऊँगा मैं

अज़ीज़ नबील

दश्त-ओ-सहरा में समुंदर में सफ़र है मेरा

अज़ीज़ नबील

बचपने की याद

अज़ीज़ लखनवी

वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं

अज़ीज़ लखनवी

देख कर हर दर-ओ-दीवार को हैराँ होना

अज़ीज़ लखनवी

नाज़नीनान-ए-जहाँ शोबदा-गर पक्के हैं

अज़ीज़ हैदराबादी

सुब्ह से चलते चलते आख़िर शाम हुई आवारा-ए-दिल

अज़ीज़ हामिद मदनी

जी है बहुत उदास तबीअत हज़ीं बहुत

अज़ीज़ हामिद मदनी

एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा

अज़ीज़ हामिद मदनी

थका हारा निकल कर घर से अपने

अज़ीज़ फ़ैसल

उस ने चाहा था कि छुप जाए वो अपने अंदर

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

उम्र भर रास्ते घेरे रहे उस शख़्स का घर

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

इस घर के चप्पे चप्पे पर छाप है रहने वाले की

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

निकलना ख़ुद से मुमकिन है न मुमकिन वापसी मेरी

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

मेरा भी हर अंग था बहरा उस का जिस्म भी गूँगा था

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

एक दिए ने सदियों क्या क्या देखा है बतलाए कौन

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

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