दिया Poetry (page 67)
पता नहीं वो कौन था
बशर नवाज़
चुप-चाप सुलगता है दिया तुम भी तो देखो
बशर नवाज़
हमारे ऐब ने बे-ऐब कर दिया हम को
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
मिसाल-ए-तार-ए-नज़र क्या नज़र नहीं आता
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
तुम कब थे क़रीब इतने मैं कब दूर रहा हूँ
बाक़ी सिद्दीक़ी
क्या पता हम को मिला है अपना
बाक़ी सिद्दीक़ी
अपनी धूप में भी कुछ जल
बाक़ी सिद्दीक़ी
आस्तीं में साँप इक पलता रहा
बाक़ी सिद्दीक़ी
मुझ से बिछड़ के वो भी परेशान था बहुत
बाक़ी अहमदपुरी
टूटे शीशे की आख़िरी नज़्म
बाक़र मेहदी
अलविदा'अ
बाक़र मेहदी
इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं
बाक़र मेहदी
दश्त-ए-वफ़ा में ठोकरें खाने का शौक़ था
बाक़र मेहदी
चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो
बाक़र मेहदी
शाहिद-ए-ग़ैब हुवैदा न हुआ था सो हुआ
बाक़र आगाह वेलोरी
माँ
बक़ा बलूच
सर-ए-राहगुज़र एक मंज़र
बलराज कोमल
सदियों का कर्ब लम्हों के दिल में बसा दिया
बलराज हयात
उसी के ज़ुल्म से मैं हालत-ए-पनाह में था
बख़्श लाइलपूरी
रुत न बदले तो भी अफ़्सुर्दा शजर लगता है
बख़्श लाइलपूरी
जो पी रहा है सदा ख़ून बे-गुनाहों का
बख़्श लाइलपूरी
यार को हम ने बरमला देखा
बहराम जी
बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की
बहराम जी
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें
ज़फ़र
या मुझे अफ़सर-ए-शाहाना बनाया होता
ज़फ़र
न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल
ज़फ़र
क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते
ज़फ़र
काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी
ज़फ़र
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए
ज़फ़र
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