दिया Poetry (page 56)
कितने अच्छे लोग थे क्या रौनक़ें थीं उन के साथ
फ़ातिमा हसन
वो इक लम्हा
फ़ातिमा हसन
ख़्वाब गिरवी रख दिए आँखों का सौदा कर दिया
फ़ातिमा हसन
जाता है जो घरों को वो रस्ता बदल दिया
फ़ातिमा हसन
ये वो सफ़र है जहाँ ख़ूँ-बहा ज़रूरी है
फ़सीह अकमल
मुद्दत से वो ख़ुशबू-ए-हिना ही नहीं आई
फ़सीह अकमल
पड़ा था लिखना मुझे ख़ुद ही मर्सिया मेरा
फ़रियाद आज़र
होश ओ ख़िरद गँवा के तिरे इंतिज़ार में
फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
गो इस सफ़र में थक के बदन चूर हो गया
फ़र्रुख़ जाफ़री
होने वाला था इक हादसा रह गया
फ़ारूक़ शफ़क़
धीरे धीरे शाम का आँखों में हर मंज़र बुझा
फ़ारूक़ शफ़क़
छाँव की शक्ल धूप की रंगत बदल गई
फ़ारूक़ शफ़क़
शहर
फ़ारूक़ मुज़्तर
मशवरा किस ने दिया था कि मसीहाई कर
फ़ारूक़ बख़्शी
बिछड़ना मुझ से तो ख़्वाबों में सिलसिला रखना
फ़ारूक़ बख़्शी
ये वक़्त ज़िंदगी की अदाएँ भी ले गया
फ़ारूक़ अंजुम
ख़ाली नहीं है कोई यहाँ पर अज़ाब से
फ़ारूक़ अंजुम
हमारे कमरे में पत्तियों की महक ने
फरीहा नक़वी
क्यूँ दिया था? बता! मेरी वीरानियों में सहारा मुझे
फरीहा नक़वी
बीते ख़्वाब की आदी आँखें कौन उन्हें समझाए
फरीहा नक़वी
हमें सलीक़ा न आया जहाँ में जीने का
फ़ारिग़ बुख़ारी
चाँदनी ने रात का मौसम जवाँ जैसे किया
फ़ारिग़ बुख़ारी
चाँदनी ने रात का मौसम जवाँ जैसे किया
फ़ारिग़ बुख़ारी
अपने ही साए में था में शायद छुपा हुआ
फ़ारिग़ बुख़ारी
मैं अपने-आप से बरहम था वो ख़फ़ा मुझ से
फ़रहत शहज़ाद
था पा-शिकस्ता आँख मगर देखती तो थी
फ़रहत क़ादरी
है वही एक मेरे सिवा और मैं
फ़रहत नदीम हुमायूँ
ऐ कातिब-ए-तक़दीर ये तक़दीर में लिख दे
फ़रहत नदीम हुमायूँ
कुछ तो वुफ़ूर-ए-शौक़ में बाइ'स-ए-इम्तियाज़ हो
फ़रहत कानपुरी
कोई भी हम-सफ़र नहीं होता
फ़रहत कानपुरी
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