दिया Poetry (page 54)
मैं ने हर-चंद कि उस कूचे में जाना छोड़ा
ग़मगीन देहलवी
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
ग़ालिब
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही
ग़ालिब
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
ग़ालिब
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
ग़ालिब
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
ग़ालिब
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
ग़ालिब
वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
ग़ालिब
फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है
ग़ालिब
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द
ग़ालिब
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में
ग़ालिब
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
ग़ालिब
कब वो सुनता है कहानी मेरी
ग़ालिब
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
ग़ालिब
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
ग़ालिब
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
ग़ालिब
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
ग़ालिब
गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
ग़ालिब
देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
ग़ालिब
साँप! आ काट मुझे
गौहर नौशाही
सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
फ़ुज़ैल जाफ़री
आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया
फ़ुज़ैल जाफ़री
कुत्तों का मुशाएरा
फ़ुर्क़त काकोरवी
निगाह-ए-हुस्न की तासीर बन गया शायद
फ़ितरत अंसारी
बड़ा ग़ुरूर है पल भर की नेक-नामी का
फ़िराक़ जलालपुरी
अभी निकलो न घर से तंग आ के
फ़िराक़ जलालपुरी
खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
फ़िराक़ गोरखपुरी
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ऐ सोज़-ए-इश्क़ तू ने मुझे क्या बना दिया
फ़िराक़ गोरखपुरी
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