देख Poetry (page 17)
इतनी न बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
उठ सुब्ह हुई मुर्ग़-ए-चमन नग़्मा-सरा देख
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
मोम की गुड़िया
शीरीं अहमद
चुभन ये पीठ में कैसी है मुड़ के देख तो ले
शीन काफ़ निज़ाम
वही न मिलने का ग़म और वही गिला होगा
शीन काफ़ निज़ाम
क्या ख़बर थी आतिशीं आब-ओ-हवा हो जाऊँगा
शीन काफ़ निज़ाम
मेरी वहशत का तिरे शहर में चर्चा होगा
शाज़ तमकनत
ख़्वार-ओ-रुसवा थे यहाँ अहल-ए-सुख़न पहले भी
शाज़ तमकनत
जाने वाले तुझे कब देख सकूँ बार-ए-दिगर
शाज़ तमकनत
दिल-शिकस्ता हुए टूटा हुआ पैमान बने
शाज़ तमकनत
आबला-पाई से वीराना महक जाता है
शाज़ तमकनत
उर्दू ज़बान
शायर अली शायर
शाम के ढलते सूरज ने ये बात मुझे समझाई है
शायान क़ुरैशी
रूह को आज नाज़ है अपना वक़ार देख कर
शौक़ क़िदवाई
रूह को आज नाज़ है अपना वक़ार देख कर
शौक़ क़िदवाई
दिल मिरा टूटा तो उस को कुछ मलाल आ ही गया
शौक़ क़िदवाई
कुछ तो देखें असर चराग़ चले
शौक़ माहरी
ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह
शौक़ बहराइची
नई बज़्म-ए-ऐश-ओ-नशात में ये मरज़ सुना है कि आम है
शौक़ बहराइची
क्या बढ़ेगा वो तसव्वुर की हदों से आगे
शौकत परदेसी
ऐ इंक़लाब-ए-नौ तिरी रफ़्तार देख कर
शौकत परदेसी
हर बुरे वक़्त में काम आया था
शौकत परदेसी
मुक़ाबिल इक ज़माना और सफ़-आराई मेरी
शौकत मेहदी
तसल्ली अब हुई कुछ दिल को मेरे
शारिक़ कैफ़ी
रुका महफ़िल में इतनी देर तक मैं
शारिक़ कैफ़ी
बहुत गदला था पानी उस नदी का
शारिक़ कैफ़ी
वो बकरा फिर अकेला पड़ गया है
शारिक़ कैफ़ी
नज़र भर देख लूँ बस
शारिक़ कैफ़ी
सर्कस में नौकरी का आख़िरी दिन
शारिक़ कैफ़ी
मुमकिन ही न थी ख़ुद से शनासाई यहाँ तक
शारिक़ कैफ़ी
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