दीपक Poetry (page 16)
दीवानगी-ए-इश्क़ पे इल्ज़ाम कुछ भी हो
साग़र ख़य्यामी
ओस की तमन्ना में जैसे बाग़ जलता है
सफ़दर मीर
दुरुस्त है कि मिरा हाल अब ज़ुबूँ भी नहीं
सफ़दर मीर
मुसव्विर अपने तसव्वुर का ढूँढता है दवाम
सईदुल ज़फर चुग़ताई
डूबते जाते थे तारे बादबाँ रौशन हुआ
सईदुल ज़फर चुग़ताई
नज़र में रंग समाए हुए उसी के हैं
सईद क़ैस
पत्थर को पूजते थे कि पत्थर पिघल पड़ा
सईद अहमद
ख़ुद को जब ख़ुद से किसी रोज़ रिहाई दूँगी
सादिया सफ़दर सादी
किस मुँह से ज़िंदगी को वो रख़्शंदा कह सकें
सादिक़ नसीम
इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले
सादिक़ नसीम
ख़ुशबू से हो सका न वो मानूस आज तक
सदफ़ जाफ़री
ये महर ओ मह बे-चराग़ ऐसे कि राख बन कर बिखर रहे हैं
साबिर वसीम
देखो ऐसा अजब मुसाफ़िर फिर कब लौट के आता है
साबिर वसीम
असीर-ए-शाम हैं ढलते दिखाई देते हैं
साबिर वसीम
किस को बताते किस से छुपाते सुराग़-ए-दिल
सबीला इनाम सिद्दीक़ी
बू-ए-ख़ुश की तरह हर सम्त बिखर जाऊँगा
सबा जायसी
जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में
सबा अकबराबादी
आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए
सबा अकबराबादी
बसा-औक़ात आ जाते हैं दामन से गरेबाँ में
साइल देहलवी
वीनस
रियाज़ लतीफ़
रंग पर कल था अभी लाला-ए-गुलशन कैसा
रियाज़ ख़ैराबादी
हंस के पैमाना दिया ज़ालिम ने तरसाने के बा'द
रियाज़ ख़ैराबादी
हर एक जिस्म पे बस एक ही से गहने लगे
रिन्द साग़री
हिज्र की शब हाथ में ले कर चराग़-ए-माहताब
रिन्द लखनवी
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
रिन्द लखनवी
आज इंकार न फ़रमाइए आप
रिन्द लखनवी
क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना
रिफ़अतुल क़ासमी
नादान दिल-फ़रेब मोहब्बत न खा कभी
रिफ़अत सुलतान
इन्ही सुब्हों में वो इक सुब्ह-ए-नवा याद करो
रिफ़अत अब्बास
निशान क़ाफ़ला-दर-क़ाफ़ला रहेगा मिरा
रियाज़ मजीद
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