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Collection: दर्पण Hindi Poetry | Best Hindi Shayari & Poems - Page 10 - Darsaal

दर्पण Poetry (page 10)

किसी की चश्म-ए-गुरेज़ाँ में जल बुझे हम लोग

रेहाना रूही

था मिरी जस्त पे दरिया बड़ी हैरानी में

राज़ी अख्तर शौक़

दस्तक सी ये क्या थी कोई साया है कि मैं हूँ

राज़ी अख्तर शौक़

क़ुर्बत तिरी किस को रास आई

रज़ा हमदानी

ये किस मक़ाम पे ठहरा है कारवान-ए-वफ़ा

रज़ा हमदानी

हर अक्स ख़ुद एक आइना है

रज़ा हमदानी

क्या देखते हैं आप झिजक कर शराब में

रौनक़ टोंकवी

ज़िंदगी के कैसे कैसे हौसले पथरा गए

रौनक़ रज़ा

क़ातिल सभी थे चल दिए मक़्तल से रातों रात

रउफ़ ख़लिश

साया सा इक ख़याल की पहनाइयों में था

रासिख़ इरफ़ानी

किन सराबों का मुक़द्दर हुईं आँखें मेरी

राशिद तराज़

कोई रस्ता कोई रहरव कोई अपना नहीं मिलता

राशिद क़य्यूम अनसर

बस एक बार तिरा अक्स झिलमिलाया था

राशिद अनवर राशिद

पत्थर पड़े हुए कहीं रस्ता बना हुआ

राशिद अमीन

साया था मेरा और मिरे शैदाइयों में था

राशिद आज़र

फ़ासला रक्खो ज़रा अपनी मुदारातों के बीच

राशिद आज़र

मिरी शनाख़्त के हर नक़्श को मिटाता है

रशीदुज़्ज़फ़र

कोई तो है कि नए रास्ते दिखाए मुझे

रशीद निसार

तन्हाइयों के दर्द से रिसता हुआ लहू

रशीद अफ़रोज़

तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ

रसा चुग़ताई

तुझे अच्छा बुरा जैसा लगा हूँ

राम नाथ असीर

मेरे तसव्वुरात में अब कोई दूसरा नहीं

राम कृष्ण मुज़्तर

वो जो होती थी फ़ज़ा-ए-दास्तानी ले गया

रख़शां हाशमी

वो एक अक्स कि पल भर नज़र में ठहरा था

राजेन्द्र मनचंदा बानी

दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला

राजेन्द्र मनचंदा बानी

ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए

राजेन्द्र मनचंदा बानी

वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था

राजेन्द्र मनचंदा बानी

तमाम रास्ता फूलों भरा है मेरे लिए

राजेन्द्र मनचंदा बानी

मिरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है

राजेन्द्र मनचंदा बानी

दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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