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हर इक के दुख पे जो अहल-ए-क़लम तड़पता था - तिफ़्ल दारा कविता - Darsaal

हर इक के दुख पे जो अहल-ए-क़लम तड़पता था

हर इक के दुख पे जो अहल-ए-क़लम तड़पता था

ख़ुद उस का अपना हर इक दर्द उस पे हँसता था

मैं आज क्यूँ तह-ए-दामाँ भी जल नहीं सकता

मिरा ही शो'ला हवाओं पे कल लपकता था

ज़माने-भर की अदाओं को सह रहा हूँ आज

कभी मैं अपनी अदाओं से भी बिगड़ता था

वो मेरी शक्ल से बेज़ार हो रहा है आज

जो शख़्स कल मिरी आवाज़ को तरसता था

तमाम शब जिसे बख़्शे थे रेशमी गेसू

सहर हुई तो वो सर दार पर लटकता था

मिरी गिरफ़्त में कौन-ओ-मकाँ की बाग थी जब

मिरा वजूद मिरी रूह से लरज़ता था

हर इक से डरता हूँ मैं आज इक ख़ुदा के सिवा

कभी वो दिन थे कि बस इक ख़ुदा से डरता था

लो आज तू ने भी दीवाना कह दिया मुझ को

तिरे ही दिल में तो मेरा सुख़न उतरता था

ये क्या किया मुझे मेरी नज़र से छीन लिया

उसी लहू से चराग़-ए-वजूद जलता था

किसी सितम में भी इक रौनक़-ए-तअ'ल्लुक़ है

वगरना यूँ तो मैं तन्हाइयों में ढलता था

तिरा सँभलना भी गिरना है इन दिनों 'दारा'

कहाँ वो दिन कि तू गिरने में भी सँभलता था

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In Hindi By Famous Poet Tifl Dara. is written by Tifl Dara. Complete Poem in Hindi by Tifl Dara. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.