वो अव्वलीं दर्द की गवाही सजी हुई बज़्म-ए-ख़्वाब जैसे
वो अव्वलीं दर्द की गवाही सजी हुई बज़्म-ए-ख़्वाब जैसे
वो चश्म-ए-सुर्मा कलाम करती वो सारे चेहरे किताब जैसे
वो आँख साया-फ़गन है दिल पर जो बे-ख़ुदी का है इस्तिआ'रा
घुली हुई नीलगूँ समुंदर में तलअ'त-ए-माहताब जैसे
बस एक धमाका कि रात की सरहदों का कुछ तो सुराग़ पाएँ
बस एक चिंगारी चाहता हो फ़तीला-ए-आफ़्ताब जैसे
वो जिस की पादाश में सहर-ज़ाद अपनी आँखें गँवा चुके हैं
इक और ताबीर चाहते हूँ वो अव्वलीं शब के ख़्वाब जैसे
वो मौज-ए-सरकश जो साहिलों को डुबो गई कैसे टूटती है
इस एक मंज़र के देखने को खुली हो चश्म-ए-हबाब जैसे
मिरी मिज़ा से टपकता आँसू हो जैसे हर डूबता सितारा
लिखा गया हो मिरी ही पलकों पे रत-जगों का हिसाब जैसे
लहू जो रिज़्क़-ए-ज़मीं हुआ है वो बारिशों में धुला नहीं है
तमाम आइंदा मौसमों के हो नाम ये इंतिसाब जैसे
(607) Peoples Rate This