क्या बताऊँ कि है किस ज़ुल्फ़ का सौदा मुझ को
क्या बताऊँ कि है किस ज़ुल्फ़ का सौदा मुझ को
दूद-ए-हर-शम्अ' गरेबाँ नज़र आया मुझ को
चाँद जो उभरा शब-ए-ग़म मिरे दिल में डूबा
भीगती रात ने कुछ और जलाया मुझ को
हाए क्या क्या मुझे बेताब रखा है उस ने
याद करने पे भी जो याद न आया मुझ को
अब तो साँसों के तमव्वुज से भी जी डरता है
ज़िंदगी तू ने ये किस घाट उतारा मुझ को
थे मिरी पुश्त पे अक़दार के ढलते सूरज
बन गया राह-नुमा अपना ही साया मुझ को
राह बे-सम्त है उफ़्ताद है मंज़िल अपनी
ख़ाक-ए-सहरा हूँ उड़ाता है बगूला मुझ को
पहले दीवार उठाई थी कि ख़ुद को देखूँ
अब यहाँ कोई नहीं देखने वाला मुझ को
ले उड़ी मुझ को मिरे ज़ेहन की ख़ुश्बू तौसीफ़
तू ने क्या सोच के ज़ंजीर किया था मुझ को
(598) Peoples Rate This