आइना मिलता तो शायद नज़र आते ख़ुद को
आइना मिलता तो शायद नज़र आते ख़ुद को
अब वो हैरत है कि पहरों नहीं पाते ख़ुद को
आश्ना लोग जो अंजाम-ए-सफ़र से होते
सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम आप मिटाते ख़ुद को
एक दुनिया को गिरफ़्तार-ए-ग़म-ए-जाँ देखा
यूँ न होता तो तमाशा नज़र आते ख़ुद को
आइना-रंग का सैलाब है पायाब बहुत
आँख मिलती तो ये मंज़र भी दिखाते ख़ुद को
अब ये देखो कि हमीं राह हमीं मंज़िल हैं
उम्र-भर देख चुके ठोकरें खाते ख़ुद को
आसमाँ शब को खुले दश्त हा झुक आता है
ख़ुशबू उड़ती है कि सहरा हैं बुलाते ख़ुद को
क्या अजब कोई किरन हम-सफ़र-ए-ख़्वाब मिले
ता-सहर ले के चलें नींद के माते ख़ुद को
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