तौसीफ़ तबस्सुम कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का तौसीफ़ तबस्सुम
नाम | तौसीफ़ तबस्सुम |
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अंग्रेज़ी नाम | Tauseef Tabassum |
जन्म की तारीख | 1928 |
जन्म स्थान | Islamabad |
शौक़ कहता है कि हर जिस्म को सज्दा कीजे
पाँव में लिपटी हुई है सब के ज़ंजीर-ए-अना
क्या ये सच है कि ख़िज़ाँ में भी चमन खिलते हैं
कौन से दुख को पल्ले बाँधें किस ग़म को तहरीर करें
जो भी नरमी है ख़यालों में न होने से है
दुख झेलो तो जी कड़ा ही रखना
दिल की बाज़ी हार के रोए हो तो ये भी सुन रक्खो
दिल बयाज़-ए-उम्र की औराक़-गर्दानी में है
देखने वाली अगर आँख को पहचान सकें
अच्छा है कि सिर्फ़ इश्क़ कीजे
वो अव्वलीं दर्द की गवाही सजी हुई बज़्म-ए-ख़्वाब जैसे
वाहिमा होगा यहाँ कोई न आया होगा
तुम अच्छे थे तुम को रुस्वा हम ने किया
था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी
सुनो कवी तौसीफ़ तबस्सुम इस दुख से क्या पाओगे
मेरी सूरत साया-ए-दीवार-ओ-दर में कौन है
मेरी सूरत साया-ए-दीवार-ओ-दर में कौन है
मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ
क्या बताऊँ कि है किस ज़ुल्फ़ का सौदा मुझ को
कितने ही तीर ख़म-ए-दस्त-ओ-कमाँ में होंगे
काश इक शब के लिए ख़ुद को मयस्सर हो जाएँ
इस पार जहान-ए-रफ़्तगाँ है
गर्द-आलूद दरीदा चेहरा यूँ है माह ओ साल के ब'अद
इक तीर नहीं क्या तिरी मिज़्गाँ की सफ़ों में
दिल था पहलू में तो कहते थे तमन्ना क्या है
दिल की बात न मानी होती इश्क़ किया क्यूँ पीरी में
बजा कि दरपय-ए-आज़ार चश्म-ए-तर है बहुत
अजीब रंग थे दिल में जो आँसुओं में न थे
आख़िर ख़ुद अपने ही लहू में डूब के सर्फ़-ए-विग़ा होगे
आइना मिलता तो शायद नज़र आते ख़ुद को