ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
जिस को देखो वही औक़ात से निकला हुआ है
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जैसे वीरान हवेली में हों ख़ामोश चराग़
बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
ख़ाक होती हुई हस्ती से उठा
रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
परी उड़ जाएगी और राजधानी ख़त्म होगी
याद और ग़म की रिवायात से निकला हुआ है
अब ज़माने में मोहब्बत है तमाशे की तरह
फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के
कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था