सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद
ज़र्द पत्ते भरे मंज़र से निकल जाते हैं
Allama Iqbal
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Gulzar
Wasi Shah
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कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था
ख़ाक होती हुई हस्ती से उठा
कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी
लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के
मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए
सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी
बदन में रूह की तर्सील करने वाले लोग
रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
कल जहाँ दीवार ही दीवार थी
परी उड़ जाएगी और राजधानी ख़त्म होगी