मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
हाए वो लोग जो मेहवर से निकल जाते हैं
Habib Jalib
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Anwar Masood
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Allama Iqbal
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
दामन बचा रहे थे कि चेहरा भी जल गया
दर्द जब से दिल-नशीं है इश्क़ है
याद और ग़म की रिवायात से निकला हुआ है
सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी
लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी
ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था