लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
आ मिरी आँख से अदा हो जा
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बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के
दामन बचा रहे थे कि चेहरा भी जल गया
सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी
मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए
कल जहाँ दीवार ही दीवार थी
बदन में रूह की तर्सील करने वाले लोग
ख़ाक होती हुई हस्ती से उठा
हमारी राह में बैठेगी कब तक तेरी दुनिया