कल जहाँ दीवार ही दीवार थी
अब वहाँ दर है जबीं है इश्क़ है
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याद और ग़म की रिवायात से निकला हुआ है
हमारी राह में बैठेगी कब तक तेरी दुनिया
ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
परी उड़ जाएगी और राजधानी ख़त्म होगी
यहीं आना है भटकती हुई आवाज़ों को
रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद
दर्द जब से दिल-नशीं है इश्क़ है
लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी
हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह
ख़ाक होती हुई हस्ती से उठा