हमारी राह में बैठेगी कब तक तेरी दुनिया
कभी तो इस ज़ुलेख़ा की जवानी ख़त्म होगी
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यहीं आना है भटकती हुई आवाज़ों को
कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था
फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के
ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
दामन बचा रहे थे कि चेहरा भी जल गया
बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
याद और ग़म की रिवायात से निकला हुआ है
हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह
सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद
मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए
दर्द जब से दिल-नशीं है इश्क़ है