लहू मेरी नसों में भी कभी का जम चुका था
बदन पर बर्फ़ को ओढ़े नदी भी सो रही थी
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फिर यही बात न मैं भूल सका
वक़्त कर देगा फ़ैसला इस का
मेरी आँखों में आ के राख हुआ
छोड़ आया था मेज़ पर चाय
वो रौशनी जो शफ़क़ का लिबास छोड़ गई
अपने मंज़र से जुदा था इक दिन
एक टहनी से बर्ग टूटा है
ठहरे पानी पे हाथ मारा था
बहार दर्द भरा इक़्तिबास छोड़ गई
न जाने आग कैसी आइनों में सो रही थी