ज़ब्त करता हूँ वले इस पर भी है ये जोश-ए-अश्क
गिर पड़ा जो आँख से क़तरा वो दरिया हो गया
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गर मेरे बैठने से वो आज़ार खींचते
'तस्कीं' ने नाम ले के तिरा वक़्त-ए-मर्ग आह
जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'
कर सके दफ़्न न उस कूचे में अहबाब मुझे
उस कू मैं हुए हम वो लब-ए-बाम न आया
ख़ूब-सूरत न हो कोई तो न हो बदनामी
तुम ग़ैर से मिलो न मिलो मैं तो छोड़ दूँ
बे-मेहर कहते हो उसे जो बेवफ़ा नहीं
फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
करता हूँ तेरी ज़ुल्फ़ से दिल का मुबादला
हुए थे भाग के पर्दे में तुम निहाँ क्यूँकर