पूछे जो तुझ से कोई कि 'तस्कीं' से क्यूँ मिला
कह दीजो हाल देख के रहम आ गया मुझे
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फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
दिल किस की तेग़-ए-नाज़ से लज़्ज़त-चशीदा है
उस कू मैं हुए हम वो लब-ए-बाम न आया
करता हूँ तेरी ज़ुल्फ़ से दिल का मुबादला
ख़ूब-सूरत न हो कोई तो न हो बदनामी
ज़ब्त करता हूँ वले इस पर भी है ये जोश-ए-अश्क
'तस्कीं' ने नाम ले के तिरा वक़्त-ए-मर्ग आह
हुए थे भाग के पर्दे में तुम निहाँ क्यूँकर
तुम ग़ैर से मिलो न मिलो मैं तो छोड़ दूँ
जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'