ख़ूब-सूरत न हो कोई तो न हो बदनामी
सच तो ये है कि बुरा होता है अच्छा होना
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ज़ब्त करता हूँ वले इस पर भी है ये जोश-ए-अश्क
बे-मेहर कहते हो उसे जो बेवफ़ा नहीं
शब-ए-विसाल में सुनना पड़ा फ़साना-ए-ग़ैर
हुए थे भाग के पर्दे में तुम निहाँ क्यूँकर
'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
करता हूँ तेरी ज़ुल्फ़ से दिल का मुबादला
अभी इस राह से कोई गया है
इतनी न कीजे जाने की जल्दी शब-ए-विसाल
'तस्कीं' ने नाम ले के तिरा वक़्त-ए-मर्ग आह
क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में
रहने वालों को तिरे कूचे के ये क्या हो गया