फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
सिर्र-ए-उल्फ़त हम छुपाएँ यार से
अपनी आँखों से अगर तश्बीह दूँ
अश्क टपके रौज़न-ए-दीवार से
बात उन की मो'तबर है सच कहा
हाल मेरा पूछिए अग़्यार से
उस की चोटी में नहीं मूबाफ़ सुर्ख़
उठे हैं शोले दहान-ए-मार से
धूप में बैठूँ कि ख़जलत से उदू
भाग जाएँ साया-ए-दीवार से
पास से तेरे उठाती ग़ैर को
ज़ोर हो सकता जो चश्म-ए-ज़ार से
छूटती हैं मुँह पे क्या महताबियाँ
वस्ल के दिन साया-ए-दीवार से
सौ तरह की फ़िक्र में 'तस्कीं' पड़े
दिल लगा कर उस बुत-ए-अय्यार से
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