ये रोज़-ओ-शब की मसाफ़त ये आना जाना मिरा
ये रोज़-ओ-शब की मसाफ़त ये आना जाना मिरा
बहुत से शहरों में बिखरा है आब-ओ-दाना मिरा
नहीं पसंद मिरे तंग-ज़ेहन क़ातिल को
ये हर्फ़-ए-शुक्र ये ख़ंजर पे मुस्कुराना मिरा
अजीब रद्द-ए-अमल था वो रौशनी के ख़िलाफ़
जला जला के चराग़ों को ख़ुद बुझाना मिरा
ये चंद लोग मिरे आस-पास बैठे हुए
यही कमाई है मेरी यही ख़ज़ाना मिरा
कहाँ उतारूँ जनाज़े को ज़िंदगी तेरे
कि इस के बोझ से शल हो चुका है शाना मिरा
ज़रा सी बात पे घर छोड़ कर चले आना
फिर इस के ब'अद कभी लौट कर न जाना मिरा
ये बात तो मिरी ज़ंजीर-ए-पा भी जानती है
बड़े शरीफ़ घरानों में था घराना मिरा
मिज़ाज अपना मिला ही नहीं ज़माने से
न मैं हुआ कभी इस का न ये ज़माना मिरा
अमीर-ए-शहर को भी क़त्ल कर गया 'तारिक़'
फ़राज़-ए-दार पे आ के ये मुस्कुराना मिरा
(748) Peoples Rate This