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सारे ज़ख़्मों को ज़बाँ मिल गई ग़म बोलते हैं - तारिक़ क़मर कविता - Darsaal

सारे ज़ख़्मों को ज़बाँ मिल गई ग़म बोलते हैं

सारे ज़ख़्मों को ज़बाँ मिल गई ग़म बोलते हैं

हम मगर ज़र्फ़ से मजबूर हैं कम बोलते हैं

किस क़दर तोड़ दिया है उसे ख़ामोशी ने

कोई बोले वो समझता है कि हम बोलते हैं

क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ

रास्ते चुप हैं मगर नक़्श-ए-क़दम बोलते हैं

वक़्त वो है कि ख़ुदा ख़ैर, ब-नाम-ए-ईमाँ

दैर वालों की ज़बाँ अहल-ए-हरम बोलते हैं

कहते हैं ज़र्फ़ का सौदा नहीं करते हम लोग

किस क़दर झूट ये सब अहल-ए-क़लम बोलते हैं

कहीं रहते हैं दर-ओ-बाम नदामत से ख़मोश

बिखरी ईंटों में कहीं जाह-ओ-हशम बोलते हैं

बात भी करते हैं एहसान जताने की तरह

कैसे लहजे में ये अब अहल-ए-करम बोलते हैं

कौन ये पुर्सिश-ए-अहवाल को आया 'तारिक़'

लब हैं ख़ामोश मगर दीदा-ए-नम बोलते हैं

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In Hindi By Famous Poet Tariq Qamar. is written by Tariq Qamar. Complete Poem in Hindi by Tariq Qamar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.