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रेआया ज़ुल्म पे जब सर उठाने लगती है - तारिक़ क़मर कविता - Darsaal

रेआया ज़ुल्म पे जब सर उठाने लगती है

रेआया ज़ुल्म पे जब सर उठाने लगती है

तो इक़्तिदार की लौ थरथराने लगती है

हमेशा होता हूँ कोशिश में भूल जाने की

वो याद और भी शिद्दत से आने लगती है

हक़ीर करती है यूँ भी कभी कभी दुनिया

मिरे ज़मीर की क़ीमत लगाने लगती है

ये रौशनाई जो फैली है तेरे अश्कों से

ये सिसकियों की सदाएँ सुनाने लगती है

ग़ुरूब होता है सूरज तो मेरे सीने से

ये कैसी रोने की आवाज़ आने लगती है

ये मस्लहत है बुझाने का जब इरादा हो

हवा दिए की कमर थपथपाने लगती है

मिरे दरीचे मिरे बाम मुस्कुराते हैं

वो जब गली से मिरी आने जाने लगती है

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In Hindi By Famous Poet Tariq Qamar. is written by Tariq Qamar. Complete Poem in Hindi by Tariq Qamar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.