ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
दिल-ए-ख़राब की ज़िद है कि घर बनाया जाए
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ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ
ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
किनारा कर न ऐ दुनिया मिरी हस्त-ए-ज़बूनी से
आज किस ख़्वाब की ताबीर नज़र आई है
अभी फिर रहा हूँ मैं आप-अपनी तलाश में
अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
ब-नाम-ए-इश्क़ यही एक काम करते हैं
अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
सारी तरतीब-ए-ज़मानी मिरी देखी हुई है
अब ये हंगामा-ए-दुनिया नहीं देखा जाता
मुझे ज़िंदगी से ख़िराज ही नहीं मिल रहा