ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
मिरे दिल ही से कोई जादा-ए-वहशत निकलता है
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सारी तरतीब-ए-ज़मानी मिरी देखी हुई है
जमाल मुझ पे ये इक दिन में तो नहीं आया
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
अभी फिर रहा हूँ मैं आप-अपनी तलाश में
मुझे ज़िंदगी से ख़िराज ही नहीं मिल रहा
जीना क्या है पिछ्ला क़र्ज़ उतार रहा हूँ
मैं आ रहा था सितारों पे पाँव धरते हुए
बे-वज्ह न बदले थे मुसव्विर ने इरादे
किनारा कर न ऐ दुनिया मिरी हस्त-ए-ज़बूनी से