ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
कभी ज़िंदगी की किताब में तुझे देखते
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ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
पोशीदा किसी ज़ात में पहले भी कहीं था
आज किस ख़्वाब की ताबीर नज़र आई है
हवा का हुक्म भी अब के नज़र में रक्खा जाए
तुझ को इस तरह कहाँ छोड़ के जाना था हमें
हवा में आए तो लौ भी न साथ ली हम ने
खोल देते हैं पलट आने पे दरवाज़ा-ए-दिल
मैं आ रहा था सितारों पे पाँव धरते हुए
ख़ुश-अर्ज़ानी हुई है इस क़दर बाज़ार-ए-हस्ती में
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए