रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
तब कहीं हर्फ़ में तासीर नज़र आई है
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वो ख़ुद गया है उस का असर तो नहीं गया
हवा का हुक्म भी अब के नज़र में रक्खा जाए
अगर कुछ भी मिरे घर से दम-ए-रुख़्सत निकलता है
जमाल मुझ पे ये इक दिन में तो नहीं आया
फिर इस से क़ब्ल कि बार-ए-दिगर बनाया जाए
बे-वज्ह न बदले थे मुसव्विर ने इरादे
ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
पोशीदा किसी ज़ात में पहले भी कहीं था
ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई