कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
ख़ुद ही अपने रस्ते की दीवार रहा हूँ
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रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
ब-नाम-ए-इश्क़ यही एक काम करते हैं
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ
दर-ओ-बस्त-ए-अनासिर पारा पारा होने वाला है
जीना क्या है पिछ्ला क़र्ज़ उतार रहा हूँ
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ