ख़ुश-अर्ज़ानी हुई है इस क़दर बाज़ार-ए-हस्ती में
गिराँ जिस को समझता हूँ वो कम-क़ीमत निकलता है
Faiz Ahmad Faiz
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अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ
अब ये हंगामा-ए-दुनिया नहीं देखा जाता
पोशीदा किसी ज़ात में पहले भी कहीं था
जीना क्या है पिछ्ला क़र्ज़ उतार रहा हूँ
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
हवा में आए तो लौ भी न साथ ली हम ने
खोल देते हैं पलट आने पे दरवाज़ा-ए-दिल
उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
आज किस ख़्वाब की ताबीर नज़र आई है