खोल देते हैं पलट आने पे दरवाज़ा-ए-दिल
आने वाले का इरादा नहीं देखा जाता
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फिर इस से क़ब्ल कि बार-ए-दिगर बनाया जाए
अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
तुझ को इस तरह कहाँ छोड़ के जाना था हमें
ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
मुझे ज़िंदगी से ख़िराज ही नहीं मिल रहा
किनारा कर न ऐ दुनिया मिरी हस्त-ए-ज़बूनी से
वो आईना है तो हैरत किसी जमाल की हो
ब-नाम-ए-इश्क़ यही एक काम करते हैं
अभी फिर रहा हूँ मैं आप-अपनी तलाश में
जमाल मुझ पे ये इक दिन में तो नहीं आया