जमाल मुझ पे ये इक दिन में तो नहीं आया
हज़ार आईने टूटे मिरे सँवरते हुए
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मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई
ऐसी तक़्सीम की सूरत निकल आई घर में
सारी तरतीब-ए-ज़मानी मिरी देखी हुई है
दर-ओ-बस्त-ए-अनासिर पारा पारा होने वाला है
कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
हवा में आए तो लौ भी न साथ ली हम ने
पोशीदा किसी ज़ात में पहले भी कहीं था
उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया