बे-वज्ह न बदले थे मुसव्विर ने इरादे
मैं उस के ख़यालात में पहले भी कहीं था
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फिर इस से क़ब्ल कि बार-ए-दिगर बनाया जाए
ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
सारी तरतीब-ए-ज़मानी मिरी देखी हुई है
ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ
दर-ओ-बस्त-ए-अनासिर पारा पारा होने वाला है
जीना क्या है पिछ्ला क़र्ज़ उतार रहा हूँ
मैं आ रहा था सितारों पे पाँव धरते हुए
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई
हवा में आए तो लौ भी न साथ ली हम ने