अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
शजर गिरा तो परिंदे तमाम शब रोए
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उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
फिर इस से क़ब्ल कि बार-ए-दिगर बनाया जाए
वो आईना है तो हैरत किसी जमाल की हो
ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
जमाल मुझ पे ये इक दिन में तो नहीं आया
किनारा कर न ऐ दुनिया मिरी हस्त-ए-ज़बूनी से
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
हवा में आए तो लौ भी न साथ ली हम ने
मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
अगर कुछ भी मिरे घर से दम-ए-रुख़्सत निकलता है
ब-नाम-ए-इश्क़ यही एक काम करते हैं