अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
बदल गए हैं मिरे दोस्तों के लहजे भी
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ख़ुश-अर्ज़ानी हुई है इस क़दर बाज़ार-ए-हस्ती में
बे-वज्ह न बदले थे मुसव्विर ने इरादे
जमाल मुझ पे ये इक दिन में तो नहीं आया
कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
तुझ को इस तरह कहाँ छोड़ के जाना था हमें
अब ये हंगामा-ए-दुनिया नहीं देखा जाता
जीना क्या है पिछ्ला क़र्ज़ उतार रहा हूँ
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
हवा का हुक्म भी अब के नज़र में रक्खा जाए