अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
क़दम ज़मीन पर रक्खा था जिस ने डरते हुए
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अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
बे-वज्ह न बदले थे मुसव्विर ने इरादे
किनारा कर न ऐ दुनिया मिरी हस्त-ए-ज़बूनी से
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
वो आईना है तो हैरत किसी जमाल की हो
अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
ऐसी तक़्सीम की सूरत निकल आई घर में
तुझ को इस तरह कहाँ छोड़ के जाना था हमें
रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह